माना कि कोरोना विषाणू ने दुनिया के हर आदमी पर असर डाला है; लेकिन भारत की बात हीं कुछ और है। हमने इसे
बिलकुल भी गंभीरता से नहीं लिया है।
लॉकडाउन में पुलिस के डंडे पड़े तब लोग घर में दुबके। कहां जा रहा है कि पहले से आज लॉक डाउन की ज्यादा जरूरत है। लेकिन पहले लॉकडाउन नहीं होता तो आज उसकी जरूरत ही नहीं होती, इतना कोरोना घर घर में बस गया होता। भारत के हालात युरोप-अमरिका से भी बदतर होते।
जल्दी लॉकडाउन हुआ तो ठीक ही हुआ। सहीं कहें तो मौत की यहां कोई कीमत ही नहीं है। गरीब भारत की जेबे खाली है। उन्हें जीने- मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता. पैसे
वालों को जरूर चिंता है। खास तौर पर उनकी जान अधर में लटकी है जिन्होंने फोर्बज् की लिस्ट में आने के लिए जीवनभर जाने कितने पापड़ बेले है।
कोरोना पिक पर है और कहीं पर चुनाव की सरगर्मियां तेज होने लगी है। कोई टेंशन नहीं है।
यहां किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. लोग मर रहे हैं, हॉस्पिटल में पेशंट्स के पड़ोस में लाशें पड़ी है; लेकिन कोई पैनिक नहीं है. लगभग सारे एमपी, एमएलए, अनगीनत मिनिस्टर, हजारों पार्षद जान बचाकर अपने घरों में बैठे हैं। आम लोग मौका मिलते ही रास्ते पर आ जाते हैं। एकदम बढ़िया चल रहा है। सत्ता पक्ष और विपक्ष घर पर है। लोग घर में हो या बाहर अपने बलबूते पर जिंदा है।
पांच-सात सौ तो वैसे भी रोज मरते है, ऐसा बेफिक्री वाला एटीट्यूड जहां पर है, वहां दुनिया की तुलना में मोर्टालिटी रेट कम होना लाजमी है।
और सहीं भी है। रोड एक्सिडेंट में हीं सालाना डेढ लाख लोग दम तोड देते है। किसानो का मरना रोज की बात है। लॉकडाउन में प्रवासी मजदुरों को तो रोज मरते-कटते देखा होगा। मौत को यहां सिर्फ आंकड़ों में देखते हैं।
मौका मिलते ही रास्तों पर इतनी भीड़ दिखने लगती है। डर पुलिस का है, कोरोना का नहीं।
यहां है डिप्रेशन
अभी एक गुणी अभिनेता सुशांत सिंह के मृत्यू कां बडा हीं दुखद समाचार आया है। इस समय कोई गुजर जाए, तो कोरोना पर शक होता है। लेकिन आत्महत्या बतां रहें
है। असली कारण कां बाद में पता चलेगा। तब तक डिप्रेशन पर माध्यमों ने चर्चाएँ होती रहेगी । सुशांत न्यू इंडिया के प्रतिनिधि थे। यह इंडिया समृद्ध है। उसके पास सारी सुविधाएं हैं। पैसा है, बंगला है, गाड़ी है। इज्जत है। शोहरत है। सारी ब्यूरोक्रेसी उसके सामने हाथ जोड़कर खड़ी है। फिर भी डिप्रेशन है। सबकुछ पाकर किस चीज की निराशा है? क्यों अकेलापन है? इस अगडे इंडिया कां धीरज जवाब दे रहां है... यही इंडिया पिछड़े भारत को मोटीवेशनल लेक्चर्स बेचता रहता है। उन्हीं की हिम्मत जवाब दे रही है। अजब न्याय है!
यहां नही है डिप्रेशन
जरा उस भारत कि तरफ देखो भाई! कोरोना के इस संकट काल में इनके संसार रास्ते पर आ गए हैं। इनके रोजगार गए हैं। यहां लाचारी है लेकिन जीने की जिद नहीं छुटी है। वो लॉकडाउन के बाद शहर में परिवारसमेत फँस गया। उसने परिवार को सैकड़ों किलोमीटर ढोया। ऐसा पैदल प्रवास शायद ही इतिहास में कभी हुआ है। पैर फटे लेकिन हिम्मत नहीं टूटी। लाखों मजदूरों का भविष्य खतरे में है लेकिन कहीं पर भी डिप्रेशन नहीं है। उसकी सहनशीलता, उसके उम्मीद का दायरा बड़ा है। उसकी क्षमाशीलता लाजवाब है! सलाम है उस मजदूर को!
बिलकुल भी गंभीरता से नहीं लिया है।
लॉकडाउन में पुलिस के डंडे पड़े तब लोग घर में दुबके। कहां जा रहा है कि पहले से आज लॉक डाउन की ज्यादा जरूरत है। लेकिन पहले लॉकडाउन नहीं होता तो आज उसकी जरूरत ही नहीं होती, इतना कोरोना घर घर में बस गया होता। भारत के हालात युरोप-अमरिका से भी बदतर होते।
जल्दी लॉकडाउन हुआ तो ठीक ही हुआ। सहीं कहें तो मौत की यहां कोई कीमत ही नहीं है। गरीब भारत की जेबे खाली है। उन्हें जीने- मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता. पैसे
कोरोना पिक पर है और कहीं पर चुनाव की सरगर्मियां तेज होने लगी है। कोई टेंशन नहीं है।
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गलत पोज |
पांच-सात सौ तो वैसे भी रोज मरते है, ऐसा बेफिक्री वाला एटीट्यूड जहां पर है, वहां दुनिया की तुलना में मोर्टालिटी रेट कम होना लाजमी है।
और सहीं भी है। रोड एक्सिडेंट में हीं सालाना डेढ लाख लोग दम तोड देते है। किसानो का मरना रोज की बात है। लॉकडाउन में प्रवासी मजदुरों को तो रोज मरते-कटते देखा होगा। मौत को यहां सिर्फ आंकड़ों में देखते हैं।
मौका मिलते ही रास्तों पर इतनी भीड़ दिखने लगती है। डर पुलिस का है, कोरोना का नहीं।
यहां है डिप्रेशन
अभी एक गुणी अभिनेता सुशांत सिंह के मृत्यू कां बडा हीं दुखद समाचार आया है। इस समय कोई गुजर जाए, तो कोरोना पर शक होता है। लेकिन आत्महत्या बतां रहें
है। असली कारण कां बाद में पता चलेगा। तब तक डिप्रेशन पर माध्यमों ने चर्चाएँ होती रहेगी । सुशांत न्यू इंडिया के प्रतिनिधि थे। यह इंडिया समृद्ध है। उसके पास सारी सुविधाएं हैं। पैसा है, बंगला है, गाड़ी है। इज्जत है। शोहरत है। सारी ब्यूरोक्रेसी उसके सामने हाथ जोड़कर खड़ी है। फिर भी डिप्रेशन है। सबकुछ पाकर किस चीज की निराशा है? क्यों अकेलापन है? इस अगडे इंडिया कां धीरज जवाब दे रहां है... यही इंडिया पिछड़े भारत को मोटीवेशनल लेक्चर्स बेचता रहता है। उन्हीं की हिम्मत जवाब दे रही है। अजब न्याय है!
यहां नही है डिप्रेशन
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नो डिप्रेशन! |
जरा उस भारत कि तरफ देखो भाई! कोरोना के इस संकट काल में इनके संसार रास्ते पर आ गए हैं। इनके रोजगार गए हैं। यहां लाचारी है लेकिन जीने की जिद नहीं छुटी है। वो लॉकडाउन के बाद शहर में परिवारसमेत फँस गया। उसने परिवार को सैकड़ों किलोमीटर ढोया। ऐसा पैदल प्रवास शायद ही इतिहास में कभी हुआ है। पैर फटे लेकिन हिम्मत नहीं टूटी। लाखों मजदूरों का भविष्य खतरे में है लेकिन कहीं पर भी डिप्रेशन नहीं है। उसकी सहनशीलता, उसके उम्मीद का दायरा बड़ा है। उसकी क्षमाशीलता लाजवाब है! सलाम है उस मजदूर को!
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घरवापसी |
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