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तू है तो जीवन है |
मोदी सरकार के मूँह से निकला हर विचार, सोच एक संक्रामक बीमारी की तरह सबको जल्द हीं घेर लेता है. चाहे वह आम आदमी हो या ब्यूरोक्रेसी; सब उसके चपेट में आ जाता है. ब्यूरोक्रेसी सरकार के आदेशों को इंप्लीमेंट करती है. तो उसके कामकाज पर सरकार का असर दिखना बिल्कुल लाजमी है.
ऐसे ही सरकार से जुड़ी एक संस्था है 'ट्राई' याने टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण). इस ट्राई ने सबको परेशान करके रख दिया है. यह संस्था ग्राहकों पर ऐसे ऐसे प्रयोग कर रही है कि उसके कामकाज का तरीका अब आकलन के परे होता जा रहां है.
इस देश के आधे से ज्यादा टीवी दर्शक अर्ध शिक्षित और अशिक्षित है. यह जानते हुए भी ट्राई के सर्कुलर अंग्रेजी में निकलते रहते हैं. यह लोग इतने भी प्रोफेशनल नहीं है कि ग्राहकों को आसान भाषा में समझा सके.यह FTA मतलब फ्री टू एयर क्या है? इसके तो 154 रु.मंथली टैक्स समेत हर ग्राहक कों लग रहां हैं. फिर यह FTA कैसे हुआ? जिसके भरोसे कमाना है उसे तो यह बातें समझ में आनी चाहिए? जरूरी नहीं है कि इस फिल्ड के टेक्निकल टर्मस् और नये-नये शब्दों कों ग्राहक समझ सके. ग्राहकों में कन्फ्यूजन बने रहने का यह भी एक बड़ा कारण है. यह एक बिझनेस होकर भी ट्राई का व्यवहार बिलकुल 'सरकारी' है; जहां ग्राहकों कि कोई कीमत नहीं है.
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ट्राई के मुखियां |
पिछले दिनों में ट्राई ने ऐसे ऑर्डर छोड़े हैं कि उससे सामान्य ग्राहक और नेटवर्क प्रोवाइडर भी परेशान हो गए हैं. एक सिस्टम सेट होता नहीं कि ट्राई का नया सर्कुलर आ जाता है. इसमें नेटवर्क कंपनियों का कोई नुकसान नहीं होता. उन्हें अपने बिजनेस से मतलब है. पहले ही कंपनियों के सैकड़ों पैकेजेस उपलब्ध है. उसे ही लोग समझ नहीं पा रहे हैं और रोजाना नये पैकेजेस आते रहते हैं. ट्राई और नेटवर्क प्रोवाइडर्स ने लोगों को पागल करके रख दिया है. नुकसान सिर्फ आम ग्राहकों कां होता है. नेटवर्क कंपनियां सारा कन्फ्यूजन आम ग्राहकों पर डाल देती है और ग्राहक हमेशा लूटता रहता है.
कुछ साल पहले सेट टॉप बॉक्स कंपलसरी कर दिया गया. तब बॉक्स बनाने वाली कंपनियां और केबल चालकों की चांदी हो गई. आजकल कई घरों में अमूमन दो से लेकर पाँच तक टीवी होते हैं. उतने सेट टॉप बॉक्स लोगों को लगाने पड़े. लेकिन उनकी कीमत पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं था. शुरुआत में तो प्रति सेट टॉप बॉक्स 4 हजार रुपए वसूले गए. अगर कोई ग्राहक सर्विस प्रोवाइडर बदल दे तो सेट टॉप बॉक्स और पैसा भी गया काम से. अभी भी ट्राई ने इस समस्या पर कोई रास्ता नहीं निकाला है.
वह कम ही था कि इस साल फरवरी में ट्राई ने नया सिस्टम लागू कर दिया. सरकार का इनकम बढे और केबल ऑपरेटर्स को लगाम लगे इस के लिए यह कवायद की गई. लेकिन यह सिस्टम कैसे चलेगा, इस पर कोई स्पष्टता नहीं थी. बस ट्राई ने सर्विस प्रोवाइडर पर थोप दिया और उन्होंने आम ग्राहकों को ठोक दिया.
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त्रस्त लोग बस चिल्लाते रहते है... |
बताया जाता कि घर को जा कर अपने पसंद के चैनल्स की लिस्ट बना कर लाओ. लोगों ने रात रात आंखें फोड़ कर लिस्ट बनाई तो फिर उसे स्वीकारने से कंपनियों ने मना कर दिया. क्योंकि हर एक ग्राहक के पसंद के अनुसार लिस्ट बनाना कंपनियों के लिए संभव नहीं था. तो फिर उन्होंने उनके हिसाब से पैकेजेस बनाकर ग्राहकों के सामने रख दिए. उसमें से चुनाव करने के सिवाय लोगों के सामने पर्याय नहीं था. इस कवायद में बिल कम करने का ट्राई का वादा पूरा न हो सका. उलटे चैनल तो कम हो गए और बिल दुगने हो गए. इस चीटिंग की वजह से कई ग्राहकों ने अपने टीवी भी बंद कर दिए है.
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तेरे बिन सुनी सुनी है राहें... |
नया सिस्टम आते ही केबल चालक और ट्राई के बीच में झगड़े शुरू हो गए. यह मामला कोर्ट तक भी गया. आम आदमी के समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था.लेकिन ट्राई कि फेकम् फाक बातोंपर विश्वास रखकर लोक सहते रहें. बिल कम होने का इंतजार करते रहे. यह सब हो रहा था तभी लोकसभा चुनाव आ गए. लोग परेशान थे लेकिन राष्ट्रवाद कि ऐसी आंधी चली कि देशवासियों की असली समस्याएं उस सैलाब में बह गई.
बिल बढ़ गए और चैनल कम हो गए. टीवी ग्राहक रो ही रहे थे कि ट्राई के चेअरमन शर्मा जी ने स्टेटमेंट दे दिया कि 20 परसेंट ग्राहक को के बिल कम हो गए. यह जानकारी उन्होंने किस आधार पर दी थी इसका अभी तक पता नहीं चल पाया है. लोग परेशान होते रहे...
दरमियान सैकडो जागरूक लोगों ने ग्राहकों की समस्याओं से ट्राई को अवगत कराया. ट्राई का टेंशन बढ़ गया तो इतने में उन्होंने फिर एक सर्कुलर निकाला कि नेटवर्क सर्विस प्रोवाइडर्स के पैकेजेस कि समीक्षा होगी. लोगों के बिल कम करने पर विचार होगा. ऐसे ट्राई ने कहां ही था कि कंपनियां सतर्क हो गई. शायद उनके दबाव का ही परिणाम था कि दूसरे पल ही ट्राई अपने वादे से मुकर गई. बताया गया कि कोई बड़ा फेरबदल नहीं होगा अब फिर से ग्राहक सर पर हाथ देकर बैठे हैं.अच्छे दिन के इंतजार में...
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ट्राई के ऐसे आर्डर आए दिन निकलते रहते हैं. |
ऊपर से ट्राई के अधिकारी अलग-अलग स्टेटमेंट देकर लोगों को गुमराह करने का काम करते रहते हैं. शुरुआत में ही इस योजना की पोल खुल गई. रेवेन्यू बढ़ाने के लिए सरकार ने यह सब किया लेकिन पूर्व तैयारी ढंग से नहीं हुयी. जैसे नोटबंदी,जीएसटी लाते वक्त भी हुआ था.
जैसे ही लोगों की परेशानी बढ़ती है और वह कंप्लेंट करने लगते हैं उस वक्त ट्राई के अध्यक्ष बाहर आकर कोई नया शगुफा छोड़ देते हैं.और लोग अच्छे दिन आने के आस में लग जाते हैं.
लोगों कां किसी के कमाने को विरोध नहीं है; चाहे वह सरकार हो या उद्योजक. बस सिस्टमैटिकली कमाइए. करोड़ों ग्राहकों को बेवकूफ बनाकर नहीं, इतनी हीं अपेक्षा है. आखरी बात-लोगों को टीवी देखना है और उसके लिए वह खर्चा भी करने को तैयार है. लोग ढंग का रेगुलेशन चाहते हैं. यह जिम्मेदारी ट्राई को सौंपी गई है. उसे वह अच्छे से निभाए. रेगुलेटर कन्फ्यूजन बढ़ाने के लिए नहीं होता. ट्राई के लोग एक बार बैठ कर क्या करना है यह तय कर ले. बार-बार लोगों को परेशान ना करें. काम का दिखावा ना करें. ग्राहकों की समस्याओं को जल्द सुलझाएँ. दिखावे का सफेद हाथी ना बने. सात महीने बीत चुके हैं. कुछ तो करो साईं? सॉरी ट्राई...
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अच्छे दिन की आस में मूंह मिठाई किजिए! |
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